गीता अध्याय 16 का सारांश

भगवान श्री कृष्ण गीता में मनुष्यों को दो प्रकार बताये हैं

पहले दैवी प्रकृति एवं दूसरे आसुरी प्रकृति वाले।

दैवी प्रकृति:- इस प्रकृति लोगों में भय का सर्वथा अभाव होता है। भीतर से पूर्ण निर्मल होते हैं। इन्द्रियों का दमन, भगवान का पूजन, यज्ञ, शास्त्रों का पठन पाठन करते हैं। बड़ों और गुरुजनों का सम्मान, अपने धर्म के पालन में कष्ट सहन(जैसे व्रत आदी) करते हैं। मन, वाणी और शरीर से किसी को कष्ट नहीं देते। अपना नुकसान करने वाले पर भी क्रोध नहीं करते। अंतःकरण में चंचलता का आभाव रहता है। किसी की बुराई नहीं करते। इनके मन में सबके लिए दया, कोमलता और लोकलाज का भय रहता है, इसलिए दुष्कर्मों से बचे रहते हैं। तेज़, क्षमा,धैर्य, भीतर-बाहर की शुद्धि(अर्थात शरीर और अपने आस पास साफ़ सफाई रखना) और अहंकार का सर्वथा भाव दैवीय प्रकृति लोगों के गुण हैं।

आसुरी प्रकृति:- दंभ, घमंड, क्रोध, कठोरता और अज्ञान इनके मुख्य लक्षण हैं। इनमें ना तप ना ही बाहर भीतर की शुद्धि है, ना श्रेष्ट आचरण, न सच बोलना ही है। यह लोग मानते हैं कि यह दुनिया केवल स्त्री पुरुष के संयोग से बनी है, इन्हें इश्वर में भरोसा नहीं होता। ऐसे लोग पूरी ना होने वाली इच्छाओं के पीछे भागकर भ्रष्ट आचरण करते हुए संसार में विचरते हैं। ये जीवन भर इन्द्रिय सुखों के पीछे भागते रहते हैं और इन्हें ही सच्चा सुख समझते हैं। वे सोचते हैं कि मैंने आज इतना पा लिया कल वह पा लूँगा और अन्याय पूर्वक धन संग्रह कि कोशिश करते हैं। उस दुश्मन को मैंने मार दिया, दुसरे दुश्मनों को भी मैं मार डालूँगा, मैं बलवान और सुखी हूँ, मैं राजा हूँ, मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है। ऐसे लोग पूजा पाठ भी दिखावे के लिए ही करते हैं।


सब सांसारिक पदार्थ यहीं रह जायेंगे। यदि हम इश्वर को तन मन में धारण कर लेते हैं तो हमारी आत्मा या तो इश्वर में लीन होगी या कर्मों के अनुसार हमारा दूसरा जन्म किसी और योनी में होगा या नरक में पड़ेंगे यह तय है।

यह प्रकृति हमें पूर्व जन्मों के फल स्वरूप मिलती है। अतः हमें अपने वर्तमान जीवन को अधिक से अधिक भगवान की और लगाना चाहिए जिससे हम जन्म मरण के दुखों से मुक्ति पाकर परमात्मा में लीन हो जाएँ।


(गीता अध्याय 16 का सारांश)

जय जय श्री कृष्ण 🙏🙏🌸🌸🙏🙏
जय सनातन धर्म⛳️⛳️⛳️⛳️⛳️

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