ऊर्ध्व पुण्ड्र महत्व,तिलक क्यों लगाये

श्री सीताराम 



!!  ऊर्ध्वपुण्ड्र !!

जिसको धारण करने से ऊर्ध्व गति की प्राप्ति हो उसे ऊर्ध्व पुण्ड्र कहते हैं । सभी वैष्णव संप्रदायों में अलग अलग ऊर्ध्व पुण्ड्र लगाने का विधान है । बिना तिलक लगाये वैष्णव को कदापि नहीं रहना चाहिये स्मृति का वचन है : -
 मृत्तिका चन्दनं चैव भस्म तोयं चतुर्थकम् ।
 एभिर्द्रव्यैर्यथा कालमुर्ध्वपुण्ड्रं भवेत् सदा ।।

मिट्टी ,चंदन ,भस्म अथवा जल के द्वारा सदा ऊर्ध्व पुण्ड्र धारण करना चाहिये । स्नान के तुरंत बाद जल से तिलक करना चाहिये पश्चात श्वेत मिट्टी ( पासा ) से तिलक स्वरूप करना चाहिये यह बाद नदी स्नान के समय के लिये है । ऊर्ध्व पुण्ड्र की महिमा इतनी कही गयी है शास्त्रों में जिसको कह पाना असंभव है । कहा गया है चांडाल भी यदि ऊर्ध्व पुण्ड्र धारण किये किसी पाप क्षेत्र में भी मरता है तो उसे भी शाश्वत विष्णु लोक की प्राप्ति होती है । बिना तिलक धारण किये कोई भी शुभ कृत्य फलदायी नहीं होता है :-
ऊर्ध्वपुण्ड्रविहीनस्तु पुण्यं किञ्चित् करोति यः ।
इष्टापूर्तादिकं   सर्वं     निष्फलं  स्यान्न संशयः  ।।

पदम् पुराण का वचन है बिना ऊर्ध्व पुण्ड्र लगाये व्यक्ति जो कुछ भी कर्म करता है वह सब निश्चित ही निष्फल हो जाते हैं । इस लिए तिलक धारण अवश्य करना चाहिये । तिलक कैसा हो इसको बतलाते हैं :-
नासिकामूलमारभ्य ललाटान्तसमन्वितम् ।

पहले नासिका मूल भाग में ( दोनों भौंहों के मध्य ) कमल का आसान दें पुनः दो समांतर रेखायें केश पर्यंत खींचनी चाहिये । बहुत से लोग माथे के बीच में ही तिलक पोंछ देते हैं जो कि गलत है केश ( बालों )के प्रारम्भ स्थान तक तिलक होना चाहिये । पश्चात लाल रंग का श्रीचूर्ण धारण करना चाहिये । श्री एवं पासे के बीच थोड़ा अंतर देना चाहिये एक दम सटा कर तिलक नहीं करना चाहिए । तिलक धारण के लिये धातु या तुलसी की लकड़ी का प्रयोग भी कर सकते हैं वैसे शास्त्रों में उँगली से तिलक लगाने का माहात्म्य कहा गया है :- 
अनामिका कामदा प्रोक्ता मध्यमायु:करी भवेत् ।
अंगुष्ठ  पुष्टिदः   प्रोक्तस्तर्जनी   मोक्षसाधनी   ।।

अनामिका से तिलक करने पर कामनाओं की पूर्ति होती है , मध्यमा अंगुली से आयु की वृद्धि होती है , अंगूठे से तिलक करने से पुष्टि तथा तर्जनी से तिलक करने से मोक्ष प्राप्ति होती है ।
तिलक के मध्य में कुछ भी धारण नहीं करना चाहिये अगर भगवान् की प्रसादी चंदन मिले तो उसे श्री के ऊपरी भाग में लगाना चाहिये । माताओं को भी श्रीचूर्ण अवश्य धारण करना चाहिये यही सौभाग्यप्रद होता है । आज कल बिंदी का प्रयोग बहुत होता है जो कि शास्त्र विरुद्ध है । शास्त्रों में माथे पर कागज और गोंद चिपकाने का आदेश नहीं दिया है वहाँ तो शुद्ध हरिद्रा की श्री ही धारण करनी चाहिये । एक मेरी शंका है कृपया सभी निवारण करेंगें सावित्री किस ब्रांड की बिंदी लगती थी जो यम से अपने पति को वापस ले आयीं ? वो भी श्रीचूर्ण का ही प्रयोग करती थीं इस लिये माताओं को बिंदी न लगा कर श्री ही धारण करना चाहिये । कोई क्या कहेगा इस पर ध्यान न देकर स्त्री एवं पुरुष दोनों को सुन्दर ऊर्ध्व पुण्ड्र सदा धारण करना चाहि !


यह ऊर्ध्व पुण्ड्र भगवान् श्रीहरि के श्रीचरणों का प्रतीक कहा गया है :- 
उत्फुल्लकमलस्थायि हरे: पादद्वयाकृतिम् ।

पाञ्चरात्र आगम में कहा गया है खिले हुये कमल पर श्रीहरि के दो चरण स्थापित करने चाहिये । तिलक में जो नासिक प्रदेश में आकृति बनाई जाती है उसे कलम का आसन कहते हैं । कमलासन देने के पश्चात दो सीधी समानान्तर रेखायें जो खींचीं जातीं हैं उसे भगवान् के युगल चरण कहा जाता है । ये दोनों रेखायें श्रीभगवान् के अचिन्त्य अद्भुत श्रीचरण कमलों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं । और जहाँ भगवान् के चरण हो वहाँ श्रीजी का वास तो अवश्य ही होगा इसीलिए मध्य में रक्त वर्ण की श्री को धारण किया जाता है यह श्री जगन्माता श्रीलक्ष्मी का स्वरूप कही जाती है :- 
ऊर्ध्वपुण्ड्रस्य मध्ये तु विशालेषु मनोहरे ।
सान्तराले समासीनो हरिस्तत्र श्रिया सह ।।

ऊर्ध्व पुण्ड्र के मध्य भाग में दोनों रेखाओं के बीच भगवान् श्रीहरि के साथ श्रीमहालक्ष्मी विराजमान रहतीं हैं ।यह सोचने पर भी रोमांच होता है जिन प्रभु के चरणों का ध्यान बड़े बड़े सिद्धात्मा विमलात्मा नहीं कर पाते वह श्रीचरण हमारे मस्तक पर सुशोभित होते हैं । अहो कैसा अद्भुत भाग्य है हम श्रीवैष्णवों का । इस लिये तिलक धारण में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिये । यत्न पूर्वक सदा तिलक को मस्तक पर धारण करना ही चाहिये । तिलक धारण करते समय मूल मंत्र या द्वय मंत्र का अनुसंधान करते रहना चाहिये । तिलक छिद्र सहित होना चाहिए अर्थात तीनों रेखाओं के बीच में अंतर होना चाहिए । कभी भी श्री को श्वेत मृत्तिका के साथ जोड़ना नहीं चाहिये । अलग से मध्य में विराजमान करना चाहिये । शास्त्रों में वर्णन है जहाँ भी तिलक धारण किये हुये गले में कमल गट्टे तथा तुलसी का माला पहने हुये बाहु मूल में शंख चक्र धारण करने वाले वैष्णव रहते हैं उस भूमि को वह साक्षात् तीर्थ स्वरूप बना देते हैं वहाँ रहने वाले पशु पक्षी वृक्षादि भी मोक्ष पद के अधिकारी हो जाते हैं । तिलक धारण मात्र से मोक्ष पद का अधिकारी यह जीवात्मा हो जाता है । इस लिये बिना किसी संकोच के तिलक धारण करना चाहिये और अपने बच्चों में भी आदत डालनी चाहिये कि वह भी नित्य तिलक धारण करें । तिलक धारण करने से ग्रह पीड़ा भूतादि का भय कदापि नहीं रहता ऐसे वैष्णव को देख कर यह सब भी दूर से ही प्रमाण करके अपना अहो भाग्य मानते हैं । 
सत्संप्रदाय में दो धारायें हैं तिंकलै और बड़कलै । इनमें तिलक एवं श्रीधारण ( रक्त श्री पीत श्री ) को लेकर थोड़ा भेद है । दोनों ही शाखाओं में अपने अपने प्रमाण पूर्ण रूपेण प्राप्त हैं दोनों ही आगमोक्त हैं इस लिये इस झगड़े में कभी नहीं पड़ना चाहिये कि कौन सही और कौन गलत हैं । दोनों ही सही हैं और शास्त्र सम्मत हैं ।
जय जय श्री सीताराम 

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