कुंभ मेला के आयोजन का कैसे शुरू हुआ प्रचलन, पढ़ें इसकी पौराणिक कथा
एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया। जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला। इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र को श्रीविहीन होने का शाप दिया।
क्या आपको व्यापार में नुकसान हुआ है
दुर्वासा ऋषि का क्रोध
इस घटना के बाद इन्द्र घबराए हुए ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने इन्द्र को लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे इन्द्र की रक्षा करने की प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि इस समय असुरों का आतंक है। इसलिए तुम उनसे संधि कर लो और देवता और असुर दोनों मिलकर समुद्र मंथन कर अमृत निकालों।
जब अमृत निकलेगा तो हम तुम लोगों को अमृत बांट देंगे और असुरों को केवल श्रम ही हाथ मिलेगा।
पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के समीप देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा, रम्भा, कल्पबृक्ष,शंख, गदा , धनुष, कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें।
इस कलश के लिए असुरों और दैत्यों में संघर्ष शुरू हो गया। अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि की सहायता से उसे लेकर भागे। यह देखकर दैत्यों ने उनका पीछा किया। यह पीछा बारह दिनों तक होता रहा। देवता उस कलश को छिपाने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को भागते रहे और असुर उनका पीछा करते रहे।
इस भागदौड़ में देवताओं को पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़ी। इन बारह दिनों की भागदौड़ में देवताओं ने अमृत कलश को हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन नामक स्थानों पर रखा। इन चारों स्थानों में रखे गए कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ी।
कुंभ मेले की शुरुआत
अंत में कलह को शांत करने के लिए समझौता हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस प्रकार बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश रिक्त हो गया। देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर माना गया है। इसलिए हर 12 वें वर्ष कुंभ की परंपरा है।
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पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के समीप देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा, रम्भा, कल्पबृक्ष,शंख, गदा , धनुष, कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें।
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इस भागदौड़ में देवताओं को पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़ी। इन बारह दिनों की भागदौड़ में देवताओं ने अमृत कलश को हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन नामक स्थानों पर रखा। इन चारों स्थानों में रखे गए कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ी।
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अंत में कलह को शांत करने के लिए समझौता हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस प्रकार बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश रिक्त हो गया। देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर माना गया है। इसलिए हर 12 वें वर्ष कुंभ की परंपरा है।
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